परिचय (Introduction): पृथ्वी का लगभग तीन चौथाई भाग जल से घिरा हुआ है। पेड़ पौधों में 50 से 75% तक जल होता है। मनुष्य के शरीर में लगभग 60 से 65% तक जल होता है। जल प्रकृति में ठोस
(solid), द्रव (liquid) तथा गैस (gas) तीनों रूपों में पाया जाता है। ठोस अवस्था में पहाड़ों पर बॅफ (ice) के रुप में द्रव अवस्था में पृथ्वी पर समुद्रों, कुओं, नदियों, झीलों आदि के रुप में तथा गैस अवस्था में वायुमण्डल में नमी (moisture) के रुप में पाया जाता है।
जल के प्राकृतिक स्त्रोत (Natural Sources of Water): प्रकृति (nature) में जल विभिन्न रुपों में उपलब्ध है। जल के मुख्य
प्राकृतिक साधन निम्नलिखित हैं 1) वर्षा का जल (Rain water)
2) झरनों एवं कुओं का जल (Stream and well water)
3) समुद्र का जल (Sea water)
4) नदियों का जल (River water)
1 वर्षा का जल (Rain Water): समुद्र, नदियों व तालाबों के
जल के वाष्पण (evaporation) के द्वारा जो बादल (clouds) बनते हैं वे पर्वतों की ठण्डी चोटियों से टकराकर द्रवित हो जाते हैं तथा वर्षा के रुप में नीचे बरसने लगते हैं इसे ही वर्षा का जल (rain water) कहते हैं। यह प्राकृतिक स्त्रोतों में सबसे शुद्ध माना जाता है। वर्षा का होना वास्तव में एक आसवन प्रक्रिया (distillation process) है। वर्षा के जल के पृथ्वी तक आने में उसमें धूल (dust) तथा अन्य अशुद्धियाँ जैसे कार्बन डाई ऑक्साइड ए सल्फर डाइ ऑक्साइड, नाइट्रिक एसिड, अमोनियम नाइट्रेट, कार्बन चूर्ण आदि घुल जाते हैं जिससे वर्षा का जल अशुद्ध हो जाता है। अतः मौसम की 2 या 3 वर्षा के बाद जो जल प्राप्त होता है वह शुद्ध रुप में होता है। वर्षा के शुद्ध जल का उपयोग औषधियाँ (medicines) बनाने में करते हैं।
2) झरनों एवं कुओं का जल (Stream & Well Water): जब वर्षा का जल पृथ्वी पर गिरता है तो इसका लगभग एक तिहाई भाग धरातल पर शोषित (absorb) हो जाता है। यह पृथ्वी की सतह की छिद्रयुक्त (porous) चट्टानों (rocks) आदि से छनकर नीचे की ओर बह जाता है तथा उन स्थानों में एकत्रित हो जाता है जहाँ की सतह अब छिद्रमय (porous)
(Water Sources)
नहीं है। नीचे की ओर मार्ग अवरुद्ध होने के कारण तथा ऊपर से आने वाले जल के दबाव (pressure) के कारण यह जल पृथ्वी की किसी सतह को तोड़कर बाहर निकलने लगता है। इस प्रकार यह झरने का रुप ले लेता है। प्रायः इस जल में नमक, चूना या स्वनिज पदार्थ (minerlas) घुले रहते हैं। बहुत से झरने अपने जल के गुणों के कारण प्रसिद्ध होते हैं। जिस झरने के जल में लौह-लवण (ferrous salts) घुले रहते हैं वह बल वर्धक माना जाता है। जिस झरने के जल में गन्धक (sulphur) के यौगिक पुले रहते हैं वह त्वचा सम्बन्धी रोगों के उपचार में काम आता है तथा जिस जल में मैग्नीशियम सल्फेट तथा मैग्नीशियम क्लोराइड (MgSO₁, MgCl₂) आदि घुले होते हैं, वह कब्ज सम्बन्धी रोगों को दूर करने के काम आता है। उत्तरांचल प्रदेश में देहरादून के समीप सहस्त्र धारा में गंधक का चश्मा (अरना) चर्म रोग (skin disease) के
निवारण के लिये भारत में प्रसिद्ध है।
पृथ्वी के गर्भ में अछिद्रमय (non-porous) चट्टानों (rocks) के ऊपर जल एकत्रित होता रहता है जिससे जल बहुत अधिक मात्रा में जमा रहता है। इस जल को पीने के लिये पृथ्वी को खोदकर कुएँ बनाये जाते हैं। कुओं का जल स्वच्छ तथा शुद्ध होता हे तथा उसमें धुली अशुद्धियाँ अपेक्षाकृत कम होती हैं। 3) समुद्र का जल (Sea Water): समुद्र का जल प्राकृतिक जल में सबसे अधिक अशुद्ध (impure) होता हे। यह जल का सबसे प्रमुख स्त्रोत है। इसमें नदियों द्वारा लाया गया तथा वर्षा का जल एकत्रित होता रहता है। नदियों के जल के साथ बहकर आलम्बित अशुद्धियाँ (suspended impurities) भी समुद्र के जल में विशेण रूप से पोटेशियम, मैग्नीशियम, कैल्शियग आदि के कार्बोनेट, सल्फेट, क्लोराइड, आयोडाइड, ब्रोमाइड के रूप में घुली रहती हैं। समुद्र के जल में लगभग 3.5% तक अशुद्धियाँ होती है जिसमें लगभग 2.6 से 2.7% तक केवल नमक ही होता है इसी नमक के कारण ही समुद्र का जल खारा होता है। अतः समुद्र के जल का उपयोग बड़े गैमाने पर नमक बनाने के लिये किया जाता है।
4) नदियों का जल (River Water): नदी में जल के आने के दो साधन हैं (क) वर्षा का वह अतिरिक्त जल जो पृथ्वी पर शोषित (absorb) नहीं होता, नदी में बहकर आ जाता है तथा (ख) पर्वतों पर जीम हुई बर्फ (ice) जब सूर्य की गर्मी से पिघलती है तो यह जल मैदानों में बहरकर नदी के रुपर में परिवर्तित हो जाता है। नदी का यह जल जब पृथ्वी पर बहता है तो उसमें बहुत से कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ घुल जाते हैं। जिससे उसमें आलम्बित अशुद्धियाँ (suspended impurities) आ जाती है तथा वह स्वच्छ नहीं रह पाता है। नदियों के जल से ही नहरें निकाली जाती हैं जिनके द्वारा सिंचाई के अतिरिक्त साधन जुटाने के साथ साथ बिजली भी बनायी जाती है।
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